अब राजनांदगांव की जनता का भरोसा भूपेश सरकार पर

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राजनांदगांव। राजनांदगांव नगर निगम में कांग्रेस का महापौर चुने जाने के बाद राजनीतिक गलियारे में अब यह सवाल उठ रहा है कि जो शहर कभी पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह की राजनीति का बड़ा गढ़ रहा है, क्या उस शहर ने उन्हें खारिज कर दिया है? दरअसल राजनीतिक प्रेक्षक इस नतीजे को रमन सिंह के राजनैतिक भविष्य से जोड़कर देख रहे हैं, इसकी अपनी वजह भी है, कभी राजनांदगांव ने ही रमन सिंह के लगभग खत्म हो चुके राजनीतिक सफर को एक नई दिशा दी थी। यही वह मौका था, जिसने आगे चलकर उन्हें राज्य की सत्ता का शिखर पुरूष बनाया, रमन की राजनीति राजनांदगांव के बगैर अधूरी मानी जाती रही है। स्थानीय चुनावों में चेहरा चाहे कोई भी रहा हो, रमन का चेहरा हमेशा हावी रहा, लेकिन अब इस शहर ने एक नए नेतृत्व को चुना है। हालिया नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों में सर्वाधिक दिलचस्प नतीजे राजनांदगांव नगर निगम के ही सामने आए थे, 51 वार्डों वाले इस निगम में कांग्रेस ने 22 और बीजेपी ने 21 वार्ड जीते, जबकि 7 वार्ड निर्दलीय पार्षदों के कब्जे में आया, एक वार्ड पर कम्युनिस्ट पार्षद को जीत मिली। माना जा रहा था कि महापौर और अध्यक्ष को चुने जाने की अप्रत्यक्ष प्रणाली के बावजूद बीजेपी जीत के तमाम दांवपेंच लगाएगी, लेकिन यह महज कयास ही साबित हुए, बीजेपी को बैलेट ने पहले ही पीछे छोड़ दिया था, लेकिन रणनीतिक दांव में भी बीजेपी के हिस्से शिकस्त ही आई। निकाय चुनाव के नतीजे आने के बाद यह साफ हो गया था कि महापौर-अध्यक्ष चुने जाने के लिए निर्दलीय पार्षदों का समर्थन चाहिए होगा। चूंकि बहुमत किसी एक दल के पास नहीं था, लिहाजा यह तय था कि जिसके पास ज्यादा पार्षद होंगे, जीत उसके खाते में जाएगी। क्रोनोलॉजी बताती है कि ऐसे हालातों में अक्सर बीजेपी अपनी रणनीतिक चाल से अपने विरोधियों को चारों खाने चित्त करती रही है, लेकिन इस दफे बीजेपी के पास कोई तरकीब नहीं थी। जैसे ही नतीजे आए सात निर्दलीय पार्षदों को कांग्रेस ने अपने खेमे में शामिल कर लिया, इनमें से पांच कांग्रेस के ही बागी प्रत्याशी थे, जबकि एक निर्दलीय और एक कम्युनिस्ट पार्टी ने भी कांग्रेस को समर्थन दिया। कांग्रेस ने सभी पार्षदों को राजधानी के एक निजी होटल में रखकर उनकी घेराबंदी कर दी, बीजेपी को मौका भी नहीं मिल सका कि निर्दलीय पार्षदों का समर्थन जुटा सके। जीत कांग्रेस की तय हो चुकी थी, बावजूद इसके बीजेपी ने कांग्रेस को खुला मैदान नहीं दिया। महापौर रह चुकी शोभा सोनी को ही बीजेपी ने अपना महापौर उम्मीदवार बनाया, उनके मुकाबले कांग्रेस ने हेमा देशमुख को अपना अधिकृत प्रत्याशी बनाया। 15 साल पहले हेमा देशमुख को शोभा सोनी ने हराकर महापौर का पद हासिल किया था, लेकिन कहते हैं सियासत कब किस करवट बैठे, इसका आंकलन करना बेहद मुश्किल है। इस दफे अप्रत्यक्ष प्रणाली के तहत हुए महापौर निर्वाचन में हेमा देशमुख को 31 वोट मिले, जबकि शोभा सोनी के हिस्से महज 20 वोट ही आए, चौंकाने वाली बात यह रही कि बीजेपी की ओर से एक क्रास वोटिंग कांग्रेस के पक्ष में की गई। आखिर क्या हुआ, जिसने रमन के किले को ढहाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। राजनांदगांव शहर की सियासत को बेहद करीब से देखने और समझने वाले राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि हालात विधानसभा चुनाव के नतीजों के साथ ही बदल गए थे, जरूर लोकसभा चुनाव में मोदी लहर ने बीजेपी को व्यापक जनसमर्थन दिया था। बीजेपी को उम्मीद थी कि नगरीय निकाय चुनाव में भी लोकसभा चुनाव का इंप्रेशन दिखेगा, लेकिन जमीनी लड़ाई लड़ने के लिए बीजेपी कोई बड़ी रणनीति बना पाने में फेल रही। निकाय चुनाव के प्रचार के दौरान भी पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह महज एक दिन ही प्रचार अभियान में शामिल हुए, यही आलम सांसद संतोष पांडेय और पूर्व सांसद अभिषेक सिंह का भी रहा, जबकि प्रभारी मंत्री मो.अकबर की मैराथन बैठकें होती रही। प्रत्याशी चयन की कवायद हो या फिर प्रचार अभियान हर मोर्चे पर कांग्रेस का रूटचार्ट तैयार था, जबकि बीजेपी पार्षद अपने बलबूते चुनावी मैदान में डटे थे। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के रोड शो ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जान फूंक दी।
प्रभारी मंत्री मो.अकबर का कहना है कि कांग्रेस एकजुट होकर चुनाव लड़ रही थी। कार्यकर्ता डटकर चुनावी मोर्चे पर तैनात थे। संगठन का हर स्तर पर सहयोग पार्षद प्रत्याशियों के साथ था, भूपेश सरकार पर जनता का भरोसा था, यही वह मुद्दे थे, जिसने कांग्रेस को मजबूत बनाए रखा और बड़ी जीत कांग्रेस के हिस्से आई। इधर पूर्व मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह ने निकाय चुनाव के संबंध में दिए अपने एक बयान में सरकार पर हमला बोला है, उन्होंने दो टूक कहा है कि चुनाव प्रक्रिया में बदलाव के पीछे मकसद यही था कि प्रशासन तंत्र की मदद से खरीद फरोख्त को बढ़ावा दिया जा सके। उन्होंने कहा कि प्रजातंत्र में यह उचित नहीं है, नगरीय निकाय जैसे छोटे चुनाव में इस तरह की राजनीति नहीं की जानी चाहिए, जहां-जहां बराबरी की स्थिति रही, वहां प्रशासन ने नंगा नाच किया है।