आइये जानते हैं, छत्तीसगढ़ में जन्मे महापुरुष गुरुघासीदास जी के बारे में तथा उनकी सिद्धान्तों को

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गुरू घासीदास:
गुरू घासीदास जी का जन्म सन 1756 ग्राम गिरौदपुरी तहसिल बलौदाबाजार जिला रायपुर में पिता महंगुदास जी तथा माता अमरौतिन के यहाँ हुये थे गुरूजी सतनाम पंथ सतनाम धर्म जिसे आम बोल चाल में सतनामी पंथ के प्रवर्तक कहा जाता है, गुरूजी भंडारपुरी को अपना धार्मिक स्थल के रुप में संत समाज को प्रमाणित सत्य के शक्ति के साथ दिये वहाँ गुरूजी के पूर्वज आज भी निवासरत है। उन्होंने अपने समय की सामाजिक आर्थिक विषमता, शोषण तथा जातिभेद को समाप्त करके मानव-मानव एक समान का संदेश दिया।

वर्तमान हरियाणा के नारनौल नामक स्थान पर साध बीरभान और जोगीदास कि दो भाइयों ने सतनामी साध मत का प्रचार किया था। सतनामी साध मत के अनुयायी किसी भी मनुष्य के सामने नहीं झुकने के सिद्धांत को मानते थे। वे सम्मान करते थे लेकिन बिना किसी के आगे झुके । एक बार एक किसान ने तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के कारिंदे को झुक कर सलाम नहीं किया तो उसने इसको अपना अपमान मानते हुए उस पर लाठी से प्रहार किया जिसके बाद उस सतनामी साध ने भी उस कारिन्दे को लाठी से पीट दिया। यह विवाद यहीं खत्म न होकर और बढ़ गया और धीरे-धीरे मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गया कि सतनामियों ने बगावत कर दी है। यहीं से औरंगजेव और सतनामियों का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। जिसका नेतृत्व सतनामी साध बीरभान और साध जोगीदास ने किया था। यूद्ध कई दिनों तक चला जिसमें शाही फौज मार निहत्थे सतनामी समूह से मात खाती चली जा रही थी। शाही फौज में ये बात भी फैल गई कि सतनामी समूह कोई जादू टोना करके शाही फौज को हरा रहे हैं। इसके लिये औरंगजेब ने अपने फौजियों को कुरान की आयतें लिखे तावीज भी बंधवाए थे लेकिन इसके बावजूद कोई फरक नहीं पडा था। लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि सतनामी साधों के पास आध्यात्मिक शक्ती के कारण यह स्थिति थी। चूंकि सतनामी साधों का तप का समय पूरा हो गया था और वे गुरू के समक्ष अपना समर्पण कर वीरगति को प्राप्त हुए। जिन लोगों का तप पूरा नहीं हुआ था वे अपनी जान बचा कर अलग अलग दिशाओं में भाग निकले थे। जिनमें घासीदास का भी एक परिवार रहा जो कि महानदी के किनारे किनारे वर्तमान छत्तीसगढ तक जा पहुचा था। जहाँ पर संत घासीदास जी का जन्म हुआ औऱ वहाँ पर उन्होंने सतनाम पंथ का प्रचार तथा प्रसार किया। गुरू घासीदास का जन्म 1756 में रायपुर जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में हुआ था। ये बात बिल्कुल गलत है कि वे किसी दलित परिवार में पैदा हुए थे। चूंकि उन्होंने हिन्दु धर्म की कुरीतियों पर कुठाराघात किया था, इसलिये हिन्दुओं और ब्राम्हणो के एक वर्ग ने प्रचारित किया कि ये तो दलित है। क्यों कि ब्राम्हणों और मन्दिर के पुजारियों द्वारा हिन्दुओं के धार्मिक शोषण का विरोध करने के कारण उन्हें समाज से दूर करने का यही मार्ग उन लोगों को सूझा था। जिसका असर आज तक दिखाई पड रहा है। उनकी जयंती हर साल पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है।

बचपन से ही ईश्वर भक्ति और अहिंसा की भावना बालक घासीदास के मन में घर कर गयी। समाज में व्याप्त पशुओं की बलि और दूसरी कुप्रथाओं का इन्होनें बचपन से ही विरोध शुरू कर दिया। ईश्वर के प्रति सच्ची आस्था की वजह से बालक घासीदास ने अनेक अलौकिक और चमत्कारिक घटनाएं दिखायी ।

उनके पिता (महंगूदास) घासीदास की वैराग्य प्रवृत्ति से काफी चिंतित थे, इस कारण उन्होनें, घासीदास का विवाह सिरपुर की सफुरा माता से कर दिया। खेत में काम करने के साथ ही उनके मन में सामाजिक व्यवस्थाओं के प्रति तरह तरह के विचार उत्पन्न होते थे। जगन्नाथपुरी की यात्रा के दौरान सारंगढ़ तक पहुॅंचने के बाद उन्हें आत्मज्ञान का बोध हुआा। इस वजह से आगे की यात्रा स्थगित कर सतनाम बोलते हुए वापस घर आ गए। गिरौदपुरी से लगभग एक मील दूर छाता पहाड़ी पर औरा धौरा तेंदू पेड़ के नीचे बैठकर उन्होने तपस्या की। यह स्थ्ल आज “सत्यज्ञान” तीर्थ स्थल रूप में प्रख्यात है।

गुरू घासीदास जी ने भंडारपुरी आकर दलितों, शोषितों, अन्याय के शिकार, निरूत्साहित और निराश समाज के कमजोर लोगों को सतनाम धर्म की शिक्षा दी, उनमें आत्मविश्वांस, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार किया।

गुरू घासीदास जी का जीवन दर्शन और आदर्श मानव समाज की विशेष धरोहर है। दलित वर्ग के मसीहा गुरू घासीदास जी का व्यक्तित्व एक ऐसा प्रकाश स्तंभ है जो युगों तक मानव को मानवता का संदेश देता रहेगा।

गुरू घासीदास जातियों में भेदभाव व समाज में भाईचारे के अभाव को देखकर बहुत दुखी थे। वे लगातार प्रयास करते रहे कि समाज को इससे मुक्ति दिलाई जाए। लेकिन उन्हें इसका कोई हल दिखाई नहीं देता था। वे सत्य की तलाश के लिए गिरौदपुरी के जंगल में छाता पहाड पर समाधि लगाये इस बीच गुरूघासीदास जी ने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया तथा सोनाखान के जंगलों में सत्य और ज्ञान की खोज के लिए लम्बी तपस्या भी की।

गुरू घासीदास बाबाजी ने समाज में व्याप्त जातिगत विषमताओं को नकारा। उन्होंने ब्राम्हणों के प्रभुत्व को नकारा और कई वर्णों में बांटने वाली जाति व्यवस्था का विरोध किया। उनका मानना था कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक रूप से समान हैसियत रखता है। गुरू घासीदास ने मूर्तियों की पूजा को वर्जित किया। वे मानते थे कि उच्च वर्ण के लोगों और मूर्ति पूजा में गहरा सम्बन्ध है।

गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे। वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे। सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा। सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे। छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था। गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ। यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।

उनकी शिक्षाएँ:

सत्गुरू घासीदास जी की सात शिक्षाएँ हैं-

(1) सतनाम् पर विश्वास रखना।

(2) जीव हत्या नही करना।

(3) मांसाहार नही करना।

(4) चोरी, जुआ से दुर रहना।

(5) नशा सेवन नही करना।

(6) जाति-पाति के प्रपंच में नही पड़ना।

(7) ब्यभिचार नही करना

इनके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सतनाम पर विश्वास, मूर्ति पूजा का निषेध, वर्ण भेद से परे, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, परस्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना हैं। इनके द्वारा दिये गये उपदेशों से समाज के असहाय लोगों में आत्मविश्वास, व्यक्तित्व की पहचान और अन्याय से जूझने की शक्ति का संचार हुआ। सामाजिक तथा आध्यात्मिक जागरण की आधारशिला स्थापित करने में ये सफल हुए और छत्तीसगढ़ में इनके द्वारा प्रवर्तित सतनाम पंथ के आज भी लाखों अनुयायी हैं।

समाज सुधार:

संत गुरु घासीदास ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का बचपन से ही विरोध किया। उन्होंने समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना के विरुद्ध ‘मनखे-मनखे एक समान’ का संदेश दिया। छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से माह भर व्यापक उत्सव के रूप में समूचे राज्य में पूरी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है। इस उपलक्ष्य में गाँव-गाँव में मड़ई-मेले का आयोजन होता है। गुरु घासीदास का जीवन-दर्शन युगों तक मानवता का संदेश देता रहेगा। ये आधुनिक युग के सशक्त क्रान्तिदर्शी गुरु थे। इनका व्यक्तित्व ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसमें सत्य, अहिंसा, करुणा तथा जीवन का ध्येय उदात्त रुप से प्रकट है। छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना एवं सामाजिक न्याय के क्षेत्र में ‘गुरु घासीदास सम्मान’ स्थापित किया है।

छतीसगढ पुरातन काल से धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु रहा है। एक ओर जहां छतीसगढ प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और भौतिक संपदाओं को अपने गर्भ में समेटकर अग्रणी है, वहीं दूसरी ओर संत-महात्माओं की या तो जन्म स्थली है, तपस्थली या फिर कर्मस्थली। ये किताबी ज्ञान के बुद्धि विलासी न होकर तत्व दर्शन के माध्यम से निरक्षरों के मन मस्तिष्क में छाने में ज्यादा सफल हुये हैं। गुरू घासीदास इसी श्रृंखला के एक प्रकाशमान संत थे। वे यश के लोभी नहीं थे। इसीलिये उन्होंने अपने नाम और यश के लिये कोई चिन्ह, रचना या कृतित्व नहीं छोड़ी। उनके शिष्यों ने भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप आज उनके बारे में लिखित जानकारी पूरी तरह नहीं मिलती। सतनाम का संदेश ही उनकी अनुपम कृति है, जो आज भी प्रासंगिक है।

रायपुर जिला गजेटियर के अनुसार गुरू घासीदास का जन्म 18 दिसंबर सन् 1756 को एक श्रमजीवी परिवार में बलौदाबाजार तहसील के अंतर्गत महानदी के किनारे बसे गिरौदपुरी ग्राम में हुआ। यह गांव छतीसगढ की संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र 11 कि.मी. दूर है। इनके पिता का नाम मंहगू और माता का नाम अमरौतिन बाई था।
अमरौतिन के लाल भयो, बाढ़ो सुख अपार,
सत्य पुरूष अवतार लिन्हा, मंहगू घर आय किन्हा।
उनके जन्म को सोहर गीत में अमरौतिन के पूर्व जन्म का पुण्य बताया गया है। देखिये सोहर गीत की एक बानगी:-
हो ललना धन्य
अमरौतिन तोर भाग्य
दान पुण्य होवत हे अपार
सोहर पद गावत हे
आनंद मंगल मनावत हे
सोहर पद गावत हे…।
घासीदास का विवाह सिरपुर के अंजोरी की पुत्री सफुरा बाई से हुआ था। उनके चार पुत्र क्रमशः अमरदास, बालकदास, आगरदास, अड़गड़िया दास और एक पुत्री सुभद्रा थी। अपने पांचों भाईयों में घासीदास मंझले थे। इनके बचपन का नाम घसिया था। वे संत प्रकृति के थे। उनके साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई है जिसमें आसमान में बिना सहारे कपड़े सुखाना, हल को बिना पकड़े जोतना, एक टोकरी धान को पूरे खेत में बोने के बाद भी टोकरी का धान से भरा होना, पानी में पैदल चलना और मंत्र शक्ति से आग जलाना आदि प्रमुख है।
प्रारंभ से ही घासीदास का मन घरेलू तथा अन्य सांसारिक कार्यो में नहीं लगता था। फिर भी उन्हें अपने पिता के श्रम में भागीदार बनना ही पड़ता था। एक बार इस क्षेत्र में भीषण आकाल पड़ा जिससे उन्हें अपने परिवार के आजीविका के लिये दर दर भटकना पड़ा। अंत में वे परिवार सहित उड़ीसा के कटक शहर पहुंचे। यहां वे मजदूरी करने में अपना मन लगा पाते, इसके पूर्व ही उनकी मुलाकात बाबा जगजीवनदास से हुई। बाबा जगजीवनदास उस समय उड़ीसा के सुप्रसिद्ध संत माने जाते थे। घासीदास ने उनसे सतनाम की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने उनके मन को जगाया और उन्हें बताया कि उनका जन्म सांसारिक कार्यो के लिये बल्कि लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। कटक से लौटकर घासीदास सोनाखान के बीहड़ वन प्रांतर में जोंक नदी के किनारे तप करने लगे। यहां उन्हें सत्य की अनुभूति हुई और उन्हें सिद्धि मिली। इसके पश्चात् वे भंडारपुरी में आश्रम बनाकर सांसारिक भोग विलास का परित्याग कर जन कल्याण में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में छतीसगढ के लोगों के सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिये यदि किसी महापुरूष का योगदान रहा है तो सतनाम के अग्रदूत, समता के संदेश वाहक और क्रांतिकारी सद्गुरू घासीदास का है। समकालीन विचार कमजोर और पिछड़े वर्ग के जीवन दर्शन को जितना गुरू घासीदास ने प्रभावित किया है, उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। उन्होंने केवल छतीसगढ ही नहीं बल्कि देश के अन्य भागों में लोगों को जो सतनाम का संदेश दिया है वह युगों युगों तक चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने समता, बंधुत्व, नारी उद्धार और आर्थिक विषमता को दूर करने के लिये एक समग्र क्रांति का आव्हान किया। वे एक समदर्शी संत के रूप में छतीसगढ में सामाजिक चेतना लाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। उनका आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्तित्व के बारे में कहा जाता है कि वे हिमालय की भांति उच्च औ र महान थे। पंथी गीत में भी गाया जाता है:-
श्वेत वरण अंग सो है, सिर कंचन के समान विशाला।
श्वेत साफा, श्वेत अंगरखा, हिय बिच तुलसी के माला।
एहि रूप के नित ध्यान धरौ, मिटे दुख दारूण तत्काला।
श्वांस त्रास जम के फांस मिटावत हे मंहगू के लाला।।
छतीसगढ में गुरू घासीदास का आविर्भाव उस समय हुआ जब इस क्षेत्र का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पूरी तरह दूषित हो गयी थी। एक ओर जहां राजनीतिक एकता का अभाव था, सर्वत्र अशांति थी, वहीं दूसरी ओर सामाजिक विघटन और कटुता भरा वातावरण था। मराठा शासन के कारण चारों ओर भय, आतंक असुरक्षा और अशांति थी। शासन के नाम पर मराठा आततायियों तथा उनके स्थानीय उच्च वर्गीय अनुयायियों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर था। धार्मिक, आध्यात्मिक तथा सात्विकता की भावना का पूरी तरह आभाव था। सम्पूर्ण क्षेत्र में विषमता, दमन, अराजकता और मिथ्याभिमान विद्यमान था। ऐसी परिस्थितियों में निश्चित रूप से किसी युग पुरूष की आवश्यकता थी जो इस व्यवस्था में सुधार ला सके। ऐसे समय में गुरू घासीदास का जन्म एक वरदान था। उन्होंने अपने अंतर्मन के विश्वास और सतनाम के दिव्य संदेश से सम्पूर्ण छŸाीसगढ़ के दिग्भ्रमित लोगों को सही रास्ता दिखाया। उनके द्वारा

उनकी प्रतिपादित सिद्धांत निम्नलिखित है:-

(1)सत्य ही ईश्वर है और उसका सत्याचारण ही सच्चा जीवन है।
(2) सत्य का अन्वेषण और प्राप्ति गृहस्थ आश्रम में सत्य के मार्ग में चलकर भी किया जा सकता है।
(3) ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्विकार है। वह सतनाम है। वह शुद्ध, सात्विक, निश्छल, निष्कपट, सर्व शक्तिमान और सर्व व्याप्त है।
(4) सत्य के रास्ते में चलकर और शुद्ध मन से भक्ति करके ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
(5)धर्म का सार अहिंसा, प्रेम, परोपकार, एकता, समानता और सभी धर्मो के प्रति सद्भाव रखना है।
(6) अहिंसा एक जीवन दर्शन है, दया एक मानव धर्म है। संयम, त्याग और परोपकार सतनाम धर्म है।
(7) गुरू घासीदास ने सतनाम का जो दार्शनिक सिद्धांत दिया वह निरंतर अनुभूति के तत्व दर्शन पर आधारित है। वह उनकी आजीवन तपस्या, चिंतन, मनन और साधना का प्रतिफल है। यह उनके अलौकिक ज्ञान तथा दिव्य अनुभूति पर आधारित है।
उन्होंने न केवल छतीसगढ को एकरूपता प्रदान की बल्कि एक संस्कृति और एक जीवन दर्शन दिया। उनका उपदेश सम्पूर्ण मानवता के लिये कल्याणकारी है। जो निम्नानुसार है:-

  1. दया, अहिंसा के रूप में ईश्वर तक पहुंचने का साधन है।
  2. मांस तथा नशीली वस्तुओं का सेवन पाप है। यह हमें ईश्वर तक नहीं पहुंचने देता और दिग्भ्रमित कर देता
    है।
  3. सभी धर्मो के प्रति समभाव तथा सहिष्णुता रखना चाहिये। सभी धर्मो का लक्ष्य एक ही है।
  4. जाति भेद, ऊंच नीच और छुआछूत का भेदभाव ईश्वर तक पहुंचने में व्यवधान उत्पन्न करता है।
  5. मानवता की पूजा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। दलितों और पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है और मानवता की आराधना ही सच्चा कर्मयोग है।