पार्किंसन की समस्या अब अधिक उम्र के लोगों की समस्या नहीं रही। अब कम उम्र के लोग भी इसकी चपेट में आने लगे हैं। आखिर क्या है इसकी वजह और क्या हैं इससे बचाव के उपाय,अगर किसी अपने करीबी को बेहद कम उम्र में पार्किंसन डिजीज हो जाए तो सुनकर ही मन व्यथित हो जाता है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक क्षमता को प्रभावित करती है। चिंता तब और अधिक होती है, जब यह समस्या 40 साल के लोगों को भी हो जाती है। जी हां, वैश्विक ट्रेंड्स के अनुसार, अब पार्किंसन सिर्फ बुजुर्गों की बीमारी नहीं रही। अमेरिका में जितने लोगों में पार्किंसन की पहचान हो रही है, उनमें 10 से 20 प्रतिशत मरीजों की उम्र 50 साल से कम है और करीब आधे मरीज तो 40 साल से भी कम उम्र के हैं। इस बीमारी की अकसर अनदेखी हो जाती है, जिसके चलते लंबे समय तक जांच और इलाज नहीं हो पाता। अधिकतर मामलों में इस बीमारी की जांच तब होती है, जब व्यक्ति अपने जीवनकाल के 60वें दशक में होता है। इसकी प्रगति भी हर व्यक्ति में अलग ढंग से होती है, जिसका निर्धारण उसकी स्वास्थ्य स्थिति से होता है, उसकी उम्र से नहीं। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, पार्किंसन डिजीज यानी पीडी दुनियाभर में मृत्यु का 14वां सबसे बड़ा कारण है। यह दिमाग की उन तंत्रिकाओं को प्रभावित करती है, जिनसे डोपामाइन का उत्पादन होता है और नर्व्ज सिस्टम की संतुलन संबंधी कार्यक्षमता को बाधित करती है। ब्रेन के नाइग्रा एरिया में नर्व्स में आने वाली कमी व्यक्ति की ध्यान लगाने, संतुलन बनाने और दिन-भर के कार्यों को सही ढंग से कर पाने की क्षमता को प्रभावित करती है। जो लोग पार्किंसन डिजीज से प्रभावित होते हैं, उन्हें पैरों, जबड़ों, चेहरे, हाथों और बाहों के संतुलन में कमी महसूस होती है। यह अंगों में कठोरता के चलते होता है, जिससे शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है। पार्किंसन डिजीज के पीछे क्या कारण हैं, यह अब भी एक रहस्य है। कुछ लोग इसके लिए जेनेटिक और वातावरण संबंधी कारणों को जिम्मेदार मानते हैं, क्योंकि इनसे डोपामाइन का उत्पादन प्रभावित होता है। यह केमिकल न्यूरोट्रांसमीटर का काम करता है और शरीर के मूवमेंट को नियंत्रित करने के लिए दिमाग को संदेश भेजता है। हालांकि शोधकर्ता अब भी शोध में लगे हैं कि जेनेटिक और वातावरण संबंधी कारकों का इस बीमारी से क्या और कितना संबंध है।नेशनल पाकिंर्संस फाउंडेशन के अनुसार, 20 से 30 साल की उम्र वाले 32% लोग जेनेटिक म्यूटेशन से प्रभावित हैं। कीटनाशक, केमिकल हर्बिसाइड्स आदि बीमारी के लिए जिम्मेदार कारणों में प्रमुखता से शामिल हैं। कुछ दुर्लभ मामलों में यह बीमारी किशोरों और बच्चों में भी देखी जाती है, जिसे हम जुवेनाइल पार्किंसन के नाम से जानते हैं। ऐसे कारणों के बारे में भी जानकारी जरूरी है, जिनसे पार्किंसन की आशंका बढ़ जाती है।वातावरण मैगनीज, लेड और ट्राइक्लोरोएथलीन आदि से बीमारी की जल्द शुरूआत हो सकती है। इसके अलावा सिर की चोट भी इसका कारण हो सकती है। ऐसे माहौल में काम करना भी इसका कारण बन सकता है, जहां आप खतरनाक सॉल्वेंट के संपर्क में आते हैं।उम्र बढ़ने के साथ पार्किंसन डिजीज होने का खतरा बढ़ जाता है। आमतौर पर इसकी शुरूआत अधेड़ उम्र से होती है और 60 व इससे ऊपर की उम्र में पहुंचने पर खतरा काफी बढ़ जाता है। पुरुषों को इस बीमारी का खतरा अधिक रहता है।इसके लक्षण मरीज की उम्रए जेंडर और स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर अलग-अलग होते हैं। पार्किंसन से पीड़ित लोगों के पैरों, जबड़ों, चेहरे, बाहों समेत शरीर के बाकी हिस्सों में भी कंपन हो सकता है। मसल्स में सख्ती शरीर की गति को प्रभावित करती है। ऐसे में जब व्यक्ति किसी खास दिशा में घूमने की कोशिश करता है, तो उसे दर्द का एहसास होता है। टहलने, मुस्कराने, पलकें झपकाने और अन्य छोटी-छोटी गतिशीलता भी ऐसे लोगों के लिए चुनौती बन सकती है।बीमारी की गंभीरता बढ़ने के साथ व्यक्ति की आवाज धीमी होते-होते जुबान लड़खड़ाने लगती है। पार्किंसन से पूरी तरह से बचाव के लिए आज भी अनेक शोध चल रहे हैं। शोधकर्ता इस पर पूरी तरह काबू पाने के लिए कोई उपाय नहीं ढूंढ़ पाए हैं। कुछ ऐसे उपाय जरूर हैं, जो इससे आपको दूर रख सकते हैं।जर्नल आॅफ अल्जाइमर्स डिजीज द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, कैफीन वाली चीजें जैसे कॉफी, चाय आदि के सेवन से आप इस बीमारी से दूर रह सकते हैं।ऐसा माना जाता है कि शरीर में विटामिन डी की अधिकता इसके खतरे को कम करती है।व्यायाम का एक रुटीन अपनाने और अपनी मांसपेशियों को सक्रिय रखकर उन्हें सख्त और कठोर होने से बचाया जा सकता है।