आज मनेगी परशुराम जंयती, श्रीविष्णुजी के अवतार थे भगवान परशुराम

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भगवान श्रीहरी ने धरती पर कई बार अवतार लिया। हर बार उनका उद्देश मानवमात्र का कल्याण और पृथ्वी को दुष्टों के अत्याचार से मुक्ति दिलाना रहा। कभी राम के रूप में रावण तो कभी श्रीकृष्ण के रूप में कंस का वध कर धरती और प्राणीमात्र का उद्धार किया। श्रीविष्णुजी के एक ऐसे ही अवतार थे भगवान परशुराम। स्कंद पुराण और भविष्य पुराण के अनुसार परशुरामजी का जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि यानी अक्षय तृतीया को पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र के वरदान से हुआ था। इनकी माता का नाम रेणुका और पिता का नाम भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि था। इनका नाम जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण परशुराम हुआ। महर्षि परशुराम ने उस समय के विख्यात ऋषियों से शिक्षा ग्रहण की। उनकी प्रारंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं महर्षि ऋचीक के आश्रम मे हुई। महर्षि ऋचीक ने परशुरामजी को सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष भेट किया तो ब्रह्मर्षि कश्यप से उनको अविनाशी वैष्णव मन्त्र का ज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान परशुराम ने कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के आश्रम में विद्या प्राप्त कर दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उनको श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं कल्पतरु मन्त्र भी प्राप्त हुआ। जब महर्षि परशुराम ने चक्रतीर्थ पर घोर तपस्या की तो उनको श्रीहरी ने त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। भगवान परशुराम शस्त्र और शास्त्र के महान ज्ञाता थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। मान्यता है कि भारतवर्ष का बड़ा हिस्सा उनके द्वारा बसाया गया है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम ने तीर चला कर गुजरात से लेकर केरल तक समुद्र को पीछे धकेल दिया था। इससे नई भूमि का निर्माण हुआ नए क्षेत्रों में बसावट हुई। परशुरामजी ने अहंकार से भरे हुए हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार किया था। इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। इसके बाद उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे। ब्रह्मवैवर्त पुराण से अनुसार कैलाश स्थित भगवान शंकर के कक्ष में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा परशुरामजी को रोका। तब परशुराम ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उनको अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए धरती पर पटक दिया था। परशुरामजी की चेतना वापस आने पर कुपित परशुरामजी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये। रामायणकाल में जब सीता स्वयंवर में शिवजी का धनुष तोड़ दिया तो परशुरामजी बहुत क्रोधिक हुए, लेकिन जब उनको श्रीराम के संबंध मे ज्ञान हुआ तो उनहोंने वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना की। वाल्मीकि रामायण में वर्णित कथा के अनुसार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने रामचन्द्र की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। भीष्म द्वारा अस्वीकार करने पर अंबा ने परशुरामजी से मदद मांगी। तब उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके।