पीओके में स्थित है यह सांस्कृतिक स्थल शारदा पीठ, माना गया है देवी शक्ति के 18 महाशक्तिपीठों में से एक

0
463

पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में स्थित प्राचीन हिन्दू मंदिर एवं सांस्कृतिक स्थल शारदा पीठ की यात्रा के लिए एक गलियारे बनाने को मंजूरी दे दी है। पाकिस्तान सरकार ने इस मंदिर के लिए रास्ता भारतवासियों के लिए खोल दिया है। इस प्रस्ताव के बाद श्रद्धालु 5000 वर्षों पुराने सरस्वती देवी के मंदिर की दर्शन कर सकेंगे। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शंकर ने सती के शव के साथ जो तांडव किया था उसमें सती का दाहिना हाथ इसी पर्वतराज हिमालय की तराई कश्मीर में गिरा था। माना जाता है कि यहां देवी का दायां हाथ गिरा था। यह मंदिर कश्मीरी पंडितों के लिए तीन प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक हैं। अन्य दो अनंतनाग में मार्तंड सूर्य मंदिर और अमरनाथ मंदिर हैं। कश्मीरी पंडित संगठन लंबे समय से शारदा पीठ गलियारे को खोलने की मांग कर रहे हैं। इतिहासकारों के अनुसार शारदा पीठ मंदिर अमरनाथ और अनंतनाग के मार्तंड सूर्य मंदिर की तरह ही कश्मीरी पंडितों के लिए श्रद्धा का केंद्र रहा है। कश्मीर के अल्पसंख्यक समुदाय कश्मीरी पंडितों ने अपनी 70 साल पुरानी मांग को फिर से याद दिलाया। इस समुदाय के लिए अत्यंत पूजनीय शारदा देवी मंदिर में पिछले 70 साल से पूजा नहीं हुई है। सनातन परंपरा के अनुसार नीलम नदी के किनारे पर मौजूद इस मंदिर का महत्व सोमनाथ के शिव लिंगम मंदिर जितना ही माना जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इसे देवी शक्ति के 18 महाशक्तिपीठों में से एक माना गया है। भारतीय नियंत्रण रेखा से सिर्फ 17 मील दूर स्थित है यह मंदिर। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के इस शारदा गांव में मंदिर के नाम पर सिर्फ यही भग्नावशेष बचा है। अशोक के साम्राज्य में 237 ईस्वी पूर्व स्थापित प्राचीन शारदा पीठ करीब 5,000 साल पुराना एक परित्यक्त मंदिर है। विद्या की अधिष्ठात्री हिन्दू देवी को समर्पित यह मंदिर अध्ययन का एक प्राचीन केंद्र था। शारदा पीठ भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ मंदिर विश्वविद्यालयों में से एक हुआ करता था। शैव संप्रदाय के जनक कहे जाने वाले शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां आए और दोनों ही दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। शंकराचार्य यहीं सर्वज्ञपीठम पर बैठे तो रामानुजाचार्य ने यहीं पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया। चौदहवीं शताब्दी तक कई बार प्राकृतिक आपदाओं से मंदिर को बहुत क्षति पहुंची है। बाद में विदेशी आक्रमणों से भी इस मंदिर को काफी नुकसान हुआ। इसके बाद 19वीं सदी में महाराजा गुलाब सिंग ने इसकी आखिरी बार मरम्मत कराई और तब से ये इसी हाल में है। भारत-पाकिस्तान के बीच बंटवारे के बाद से ये लाइन आॅफ कंट्रोल के पास वाले हिस्से में आता है। बंटवारे के बाद से ये जगह पश्तून ट्राइब्स के कब्जे में रही। इसके बाद से ये पीओके सरकार के कब्जे में है। 141 ईस्वी में इसी स्थान पर चौथी बौद्ध परिषद का आयोजन किया गया था। शारदा पीठ में बौद्ध भिक्षुओं और हिंदू विद्वानों ने शारदा लिपि का आविष्कार किया था। शारदा पीठ में पूरे उपमहाद्वीप से विद्वानों का आगमन होता था। 11वीं शताब्दी में लिखी गई संस्कृत ग्रन्थ राजतरंगनी में शारदा देवी के मंदिर का काफी उल्लेख है। इसी शताब्दी में इस्लामी विद्वान अलबरूनी ने भी शारदा देवी और इस केंद्र के बारे में अपनी किताब में लिखा है।