नई दिल्ली। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार मानव जीवन को सोलह संस्कारों में पिरोया गया है। पहला संस्कार गर्भाधान संस्कार है जिसके जरिए मानव जीवन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इसी तरह दूसरे संस्कारों को उम्र के हिसाब से पूरा करता हुआ मानव जीवन सोलहवें संस्कार यानी अंतिम संस्कार की ओर बढ़ता है और आत्मा के शरीर छोड़ने के साथ ही मानव जीवन का अंतिम संस्कार पूरा हो जाता है। लेकिन इस लोक से परलोक में प्रस्थान करने के बाद भी इंसान को विधिपूर्वक अंतिम विदाई दी जाती है। इसमें सबसे प्रमुख है दाह संस्कार या नश्वर शरीर का पंचतत्व में विलिन होना। इसके शास्त्रों में नियम दिए गए हैं उन नियमों के अनुसार अग्निदाह करने पर मानव सभी तरह के मोहमाया और जीवन के जंजाल से मुक्त होकर श्रीहरी के चरणों में जगह पा जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार मानव की मृत्यु किसी भी समय हो सकती है यह परमात्मा के हाथ में है, लेकिन उसका अंतिम संस्कार सिर्फ दिन के समय यानी सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही किया जा सकता है। दिन ढलने के बाद यानी रात में मृत्यु होने पर अंतिम संस्कार के लिए सूर्योदय का इंतजार करना चाहिए। गरुड़ पुराण के अनुसार यदि अंतिम संस्कार सूर्यास्त के बाद किया जाता है तो मरने वाले को परलोक में कष्ट भोगने पड़ते और अगले जन्म में उसके अंगों में खराबी हो सकती है या कोई दोष हो सकता है। इसी कारण सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार उचित नहीं माना गया है। मोक्ष के लिए और मृतात्मा की मुक्ति के लिए दिन में अंतिम संस्कार का विधान है। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि दिन ढलने के साथ ही स्वर्ग के कपाट बंद हो जाते हैं और नर्क के खुल जाते हैं। इसलिए दिन में अंतिम संस्कार करने पर मृतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और रात के समय अंतिम संस्कार करने पर नर्क की प्राप्ति होती है। शास्त्रों में यह भी विधान है कि सूर्यास्त के बाद यदि किसी का निधन होता है तो मृत शरीर को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए। क्योंकि मृत व्यक्ति की आत्मा वहीं पर भटकती रहती है और अपनों के नजदीक रहकर उनको देखती रहती है। यह भी कहा जाता है कि मृत्यु के बाद शरीर से आत्मा प्रस्थान कर जाती है और खाली शरीर में कोई बुरी आत्मा प्रवेश न कर ले इसलिए मृतक को रात को अकेला नहीं छोड़ा जाता है। और विधि अनुसार मृत शरीर को तुलसी के पौधे के पास रखने का भी प्रावधान है।