नई दिल्ली। तीन दिन बाद यह तय होगा कि अब तक के इतिहास में सबसे लंबे रहे चुनावी अभियान में विजयी कौन रहा, जनता ने किसके अभियान को सराहा और किसे नकारा। लेकिन इस पूरे अभियान की एक बड़ी खासियत यह भी रही कि पिछले कई चुनावी अभियानों से परे इस बार राजनीतिक दल गौण हो गए। चुनावी अभियान मुख्यतया व्यक्तिवादी हो गया। विपक्ष ने भी व्यक्ति को मुद्दा बनाया, पक्ष ने भी और जनता के दिलो दिमाग में भी व्यक्ति का चेहरा हावी रहा। एक मायने में 1971 के लंबे अरसे बाद ऐसे चुनाव की झलक दिखी, जहां सत्ताधारी दल के खिलाफ छोटा मोटा गठबंधन भी बनाए लेकिन सामंजस्य की काली छाया से नहीं उबर पाया, जबकि राष्ट्रवाद और व्यक्ति का मुद्दा मुखर हो गया। हां, आरोप प्रत्यारोप, तीखे बयानों और कटाक्षों की बात हो तो यह चुनाव अभियान शायद सभी सीमाएं तोड़ गया। अप्रैल के दूसरे सप्ताह में जब चुनाव आयोग ने शंखनाद किया था उससे काफी पहले की राजनीतिक आहट तो यह थी कि यह गठबंधन बनाम गठबंधन का चुनाव होगा, लेकिन धीरे-धीरे और खासतौर से बालाकोट की घटना के बाद जिस तरह विपक्षी दलों में बिखराव शुरू हुआ, उससे स्पष्ट हो गया कि कमोबेश यह चुनाव व्यक्ति पर केंद्रित हो गया। केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खड़े हो गए। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जहां गठबंधन का थोड़ा स्वरूप दिखा भी, वहां के नेताओं ने यह स्पष्ट कर ही दिया कि वह एक व्यक्ति के खिलाफ लड़ रहे हैं। सपा और बसपा नेतृत्व की ओर से भी मोदी को ही निशाना बनाया गया। सबसे अलग-थलग होकर चुनाव लड़ी कांग्रेस और राहुल गांधी के निशाने पर भी मोदी रहे। अकेली रह गई आम आदमी पार्टी भी यह बोलने से नहीं बच पाई कि मोदी उसे स्वीकार नहीं। कहा जा सकता है कि ऐसे में विपक्ष शायद भाजपा की रणनीतिक फांस में उलझ गया। दरअसल राजग का नेतृत्व कर रही भाजपा यही चाहती भी थी कि चुनावी अभियान का केंद्र बिंदु मोदी बनें। खुद भाजपा के अभियान में मोदी है तो मुमकिन है, ष्फिर एक बार मोदी सरकार जैसे नारे ही गढ़े गए थे। भाजपा में यहां तक ख्याल रखा गया था कि घोषणापत्र के ऊपर कमल निशान के साथ केवल मोदी की फोटो लगाई गई, जबकि सामान्यतया ऐसे दस्तावेज पर पार्टी अध्यक्ष की फोटो भी होती है। अगर जमीनी अभियान की बात की जाए तो वहां भी केवल भाजपा ही नहीं राजग सहयोगी दलों के अधिकतर उम्मीदवारों के चुनावी संपर्क अभियान में मोदी ही रहे। यही कारण है कि बाद के चरणों में मोदी यह बोलते सुने गए कि जनता का हर वोट सीधे मोदी के खाते में आएगा। वहीं विपक्ष की ओर से मोदी विरोधी अभियान ने यह सुनिश्चित कर दिया कि चर्चा में मोदी रहें और कई जमीनी मुद्दों पर पानी फिर गया। ध्यान रहे कि कुछ महीने पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने नोटबंदी, जीएसटी, ऋण माफी जैसे मुद्दों को धार दी थी। इस बार ऐसे मुद्दे चुनाव पर हावी नहीं हो पाए। कांग्रेस ने न्याय, ऋण माफी जैसे मुद्दों को दस्तावेज में तो जगह दी थी, लेकिन साक्ष्य मौजूद हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष के लगभग सभी ट्वीट मोदी पर केंद्रित रहे। एक मामले में तो राफेल को लेकर चौकीदार चोर है के राहुल गांधी के बयान का उल्टा ही असर दिखा। लोकसभा में संख्या की दृष्टि से तीसरे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए, जहां हिंसा अपने चरम पर दिखी, तो कहा जा सकता है कि पूरे देश ने सकारात्मकता का संदेश दिया है। लेकिन अभियानों में राजनीतिक दलों के बीच तीखापन काफी था। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि केवल भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, कांग्रेस और सपा-बसपा भी एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकीं। आपसे संघर्ष की यह लड़ाई बिहार में भी दिखी, जहां राजग के खिलाफ लड़ते हुए राजद और कांग्रेस भी अपने मतभेद और मनभेद को नहीं छिपा पाईं। चुनाव आयोग भी कठघरे में रहा। विपक्ष की ओर से जहां लगातार इसे सत्ताधारी दल के हाथ का कठपुतली बताया गया, वहीं पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा पर रोक लगाने में अक्षमता के लिए खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आयोग को आड़े हाथों लिया। आचार संहिता उल्लंघन के फैसलों को लेकर खुद आयोग के अंदर की लड़ाई सार्वजनिक मंच पर आ गई और अपने अधिकारों को लेकर आयोग फिर से बेचारा ही साबित हुआ। इस सबके बीच अब देखने की बात यह है कि नतीजों की घोषणा के बाद राजनीतिक दल और चुनाव आयोग कहां खड़े होंगे। क्या नतीजा भी आरोप प्रत्यारोप का शिकार होगा।