तरीके से रखा गया रोजा, रोजादार के लिए सवाब ही सवाब है

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मगफिरत (मोक्ष) की बात दरअसल रूहानियत (आध्यात्मिकता) से, रूहानियत इबादत से, इबादत अल्लाह से ताल्लुक रखती हैं। रोजा, रूहानियत का रास्ता है। रोजा अल्लाह से वास्ता है। तक़्वा (संयम) रोजे की शर्त है। तरीके से रखा गया रोजा, रोजादार के लिए सवाब ही सवाब है। रोजा नेकी के मकान में मगफिरत का चिराग है। रमजान के पवित्र माह का दूसरा अशरा (कालखंड) जैसा कि पहले जिक्र किया जा चुका है कि मगफिरत (मोक्ष) का अशरा है। रोजा जब अहकामे-शरीअत (धार्मिक आचार संहिता) की पाबंदी के साथ रखा जाता है तो अल्लाह की अदालत में रोजेदार के लिए म़गिफरत का वकील हो जाता है। पवित्र कुरआन के तीसवें पारे (आयत-30) की सूरह अल आश्ला की आयत नंबर चौदह और पंद्रह में जिक्र है- बेशक वो मुराद को पहुंच गया जो पाक (पवित्र) हुआ और अपने परवरदिगार के नाम का जिक्र करता रहा और इबादत (आराधना) करता रहा। कुरआने-पाक की इस आयत की रोशनी में रोजे को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। वो मुराद को पहुंच गया में जो लफ़्ज मुराद है दरअसल रूहानी लिहाज से म़गिफरत की मुराद पूरी होने का इशारा है। लेकिन शर्त है जो पाक हुआ और अपने परवरदिगार का जिक्र करता रहा और इबादत करता रहा यानी पवित्र आचरण के साथ अल्लाह का जिक्र करता रहा और नमाज पढ़ता रहा यानी इबादत करता रहा। मुख़्तसर (संक्षेप) यह कि रोजा (उपवास) मगफिरत (मोक्ष) का चिराग तभी होगा जब रोजादार नेकी के मकान में रहे यानी किसी का दिल न दुखाए, गुस्सा नहीं करें, रिश्वत-घूस नहीं लें, बेईमानी नहीं करे, माँ-बाप की खिदमत करें, अल्लाह की इबादत करें।